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शनिवार, 2 सितंबर 2017

गुरु...अलकनन्दा सिंह


ये उर्वर पृथ्‍वी, 
ये खुला आकाश, 
ये बहती हवाऐं, 
ये जलती आग, 
ये बहता पानी, 
ये तैरती मछलियाँ
ये  सुबह उठता सूरज, 
ये रात बिताता चांद, 
ये इतराती तितलियां, 
ये शहद बनाती मक्‍खियां, 
ये मदमस्‍त हाथी, 
ये व्‍यस्‍त  चीटियां, 
ये जाल बुनतीं मकड़ियां, 
ये कुलांचे भरते हिरन, 
ये चहचहाती चिड़ियां, 
ये अबोध बच्‍चे, 
ये बर्बर शिकरी, 
ये जहरीले सांप, 
ये सब  गुरू ही तो हैं। 
इन सब गुरुओं के रहते
हमें अन्य गुरु की आवश्कता ही
कहाँ होती है

-अलकन्दा दीदी

7 टिप्‍पणियां:

  1. वाह !
    प्रकृति और परिवेश से बड़ा गुरु कौन हो सकता है ?
    इतनी सरलताभरा ज्ञान देती उत्कृष्ट रचना।
    बधाई।

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  2. आदरणीय,अतिसुन्दर सृजन शुभकामनाओं सहित ,आभार ''एकलव्य"

    जवाब देंहटाएं
  3. प्रकृति हमें कितना कुछ सिखाती है , हमें अपने दिलो दिमाग को खुला रखना होगा ताकि हम उसे अपने में समां सकें

    जवाब देंहटाएं
  4. सही कहा...
    आज के समाज में प्रकृति से बेहतर गुरू कौन है...
    बहुत सुंदर... लाजवाब रचना...

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  5. सच में प्रकृति से बढ़कर कोई गुरू नहीं....
    तीसरी चौथी कक्षा में एक कविता पढ़ी थी -
    "फूलों से नित हँसना सीखो,
    भौंरों से नित गाना।
    तरू की झुकी डालियों से नित
    सीखो सीस नवाना ।"
    खूबसूरत रचना पर हार्दिक बधाई स्वीकारें ।

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  6. सच कहा है ... इंसान हर चीज से सीख सकता है अगर चाहे तो ... और प्राकृति तो सबसे बड़ी गुरु है ...

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